लोगों को जब लिखते देखा करती थी,
सोचा करती थी कि मैं भी कुछ लिखूं!
लिखने कि जब जुर्रत कि मैंने कुछ,
तो बेचारी कलम भी गई कांप-कांप!
डर गई शायद जाने क्या लिख डालूँ,
तभी बार बार रुक- रुक सी जाती थी!
जानें क्या लिखा मैंने,मैं भी न समझी,
आखिरकार पन्ना भी कर उठा विद्रोह,
सिमटने लगा इधर-उधर ले करवट,
बड़ा विचित्र सा मंजर था उस रात जब
कलम,पन्ना और मैं जूझ रहे थे आपस में,
कोशिश हर तरफ से थी विजयी होने की!
पास पड़ा कूड़ेदान देख रहा था इस खेल को,
उसकी लपलपाती जीभ कुछ मांग रही थी!
पूरी हुई उसकी मंशा, भूख हुई कुछ शांत,
शायद मेरे लिखने का प्रयास पड़ा फीका!
कलम,पन्ना और कूड़ेदान लगे चिढ़ाने,
इतना कहाँ था बर्दाश्त इस नाचीज़ को,
कमर कस कर टूट पड़ी फिर मैदान में!
कुछ सोचा, कुछ लिखा, कुछ काटा फिर
देखा , लगा कूड़ेदान भी करने उल्टियाँ!
अब तो इंतिहा हो गई मेरे इम्तिहान की,
जब दिल ने परेशां देखा मेरे दिमाग को
तो उतर आया मैदान में देने साथ मेरा !
दिला गया याद मुझे मेरे प्रियतम की!
फिर क्या था लिख डाला मैंने बहुत कुछ,
अब तो कलम,पन्ने भी कम पड़ने लगे हैं!
और अब कूड़ेदान गुस्सा हो घूरता है मुझे
कागज़,कलम,दवात बन गए हैं मेरे गुलाम,
पहली बार लगा मैं भी कुछ लिख सकती हूँ!
No comments:
Post a Comment