Monday, April 25, 2011

सावन!


नहीं चाहती हलचल
अपने  सूने आँगन में 
नहीं चाहती कोई उथल-पुथल
दिल के छुपे अरमानों  मैं !

यह थी मेरी कैसी नियति 
बरस पड़ी घनघोर घटा 
भिगो डाला आँचल मेरा 
जो था बरसों से सूना !

मैं विरही क्या करती 
जो बरसों से थी सूखी 
एक स्पर्श सावन का पा 
पिघल गई मोम सी मैं! 

नदिया हूँ बहने लगती हूँ 
जब तन मन भर जाये जल से 
फिर क्या कोई रोक सके है 
लगा बांध वेग को मेरे 

मिलती नित सावन से 
और लहरा कर बहती जाती 
भर लेती दामन खुशियों से 
जो मिलती मुझे साँझ-सवेरे! 

हाय री किस्मत मेरी 
नेह लगा बैठी निर्मोही से 
जिसका न ढोर ठिकाना 
न कोई जिसे बाँधने वाला! 

वो ठहरा हरफन मौला 
टिकता नहीं एक का होकर 
जित जाता तित कर देता
इज़हार  प्रेम का अपने वो! 

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