Monday, April 25, 2011

ग़म!


ए चाँद तेरी चांदनी अब जलाती है 
रूह की गर्मी को और बढाती है!

तेरे पहलू में तस्सली से गुज़री रातें
ग़मगीन हो गयीं हैं,उखड़ी हैं साँसें!

अश्क देते हैं साथ अब तकिये का 
छोड़ हाथ अब मेरी दोनों आँखों का! 

दिल  के ज़ख्म  हरे हो चुभने लगें हैं 
ओस की बूंदों से भी दर्द नहीं बहते हैं!

दिल में अब ऐसे बस गए हैं मेरे ग़म
कि सूरज ही पिघलाए तो निकले दम!

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