Monday, April 25, 2011

बेबस


शाख पर एक दिन जा बैठी
लगी निहारने दुनिया को
ये बगिया मेरी है लगी सोचने
एक पल को जिसमे रहती हूँ मैं !

लोग जिन पर करती हूँ
खुद से ज्यादा मैं यकीन
हर बार तोड़ जाते है नींद
चेन की जो सोती हूँ मैं कभी!

साँसे जो कहने को तो हैं मेरी
पर दे जाती हैं धोखा हर बार
कर देती हैं हाले बयान उन्हें
जिनसे छुपाना चाहूं मैं दिल का हाल!

 ये नयन मेरे छोड़ देते हैं साथ
याद कर उन्हें,जो नज़रों से हैं दूर
आंसुओं के सैलाब को रोकती बेबस पलकें
भिगो देती हैं सूखे दामन को मेरे!

कैसे छुपाऊँ मैं दिले - हालात अपना
किस किस से छुपाऊँ मैं दिल के घाव अपने
ये वो ज़ख्म है जो रिसते हैं खुद-ब-खुद
दिला जाते हैं याद ज़ख्म देने वाले की मुझे!

No comments:

Post a Comment